एक मानसून की सुबह अचानक से मेरी आंख खुली, मैं घबरा कर उठी. बाहर अंधेरा था , लगा रात है.पास ही में मेज पर घड़ी रखी थी, उसमें समय देखा तो सुबह के 3:30 बजे थे . बाहर से बारिश की हल्की सी आवाज आ रही थी . नींद आने का नाम ही नहीं ले रही थी.सोचा थोड़ी देर खिड़की से झांक लेती हूं. झांककर देखा तो सामने लैंपोस्ट झूम रहा था उसकी रोशनी में हल्की हल्की बारिश बहुत ही खूबसूरत लग रही थी उसी से पता चला कि बारिश कितनी तेज थी.
लैंपोस्ट कहने को दिन में एक बेजान खंबा सा प्रतीत होता है जिसकी तरफ कोई देखता भी नहीं है . किसी का उसकी तरफ ध्यान ही नहीं जाता. उसका जैसे कोई अस्तित्व ही नहीं होता . कभी-कभी तो उस पर कोई सजावट के लिए रसिया बांध देता है, कोई अपने छपरे के लिए उसका इस्तेमाल करता है, कोई उसके साथ अपना जानवर बांध जाता है, ना जाने कौन से हक से . वह फिर भी बिना शिकायत किए अदिग खड़ा रहता है
उस लैंप पोस्ट को अंधेरे में रास्ते पर रोशन करते हुए देखा तो लगा, जैसे यह एक निर्जीव अपना मानो एक फर्ज अदा कर रहा था, इस अंधेरी सुबह मैं, अकेलेपन और शांत वातावरण से जूझता. एक संदेश देता हुआ कि बस जो अपना काम है वह करते जाओ , पूरी निष्ठा और लगन से, बिना यह सोचे कि क्या फर्क पड़ता है अगर मैं काम ना करो.वह भी सोचता कि कौन इतने अंधेरे में बारिश में अकेले इस राह पर भटकेगा मैं क्यों प्रकाशमान करूं रास्ते को.क्योंकि शायद वह भी जानता है कि अगर किसी दिन कोई मुसाफिर वहां आया और उसके लैंपोस्ट की वजह से अपनी मंजिल पा गया तो उसका तो मानव जीवन ही सफल हो गया.
ऐसे ही हमारी जिंदगी में हमारे शुभचिंतकों का काम होता है जो हमारी मंजिल का रास्ता तो कम नहीं कर सकते लेकिन रोशन करके उसे हमारे लिए आसान जरूर कर देते हैं. और यह लैंप पोस्ट अनजान राहीयों का शुभचिंतक बन कर काम कर रहा है हमें सिखाता है कि इंसान को भी शुभचिंतक बनने का प्रयास करते रहना चाहिए